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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 35)— गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा
गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा:—   किंतु यहाँ भी विवेक समेटना पड़ा; साहस सँजोना पड़ा। मौत बड़ी होती है, पर जीवन से बड़ी नहीं। अभय और मैत्री भीतर हो, तो हिंसकों की हिंसा भी ठंडी  पड़ जाती है और अपना स्वभाव बदल जाती है। पूरी यात्रा में प्रायः तीन-चार सौ की संख्या में ऐसे डरावने मुकाबले हुए, पर गड़बड़ाने वाले साहस को हर बार सँभालना पड़ा। मैत्री और निश्चिंतता की मुद्रा बनानी पड़ी। मृत्यु के संबंध में सोचना पड़ा कि उसका भी एक समय होता है। यदि यहीं— इसी प्रकार जीवन की इतिश्री होनी है, तो फिर उसका डरते हुए क्यों; हँसते हुए ही सामना क्यों न किया जाए? यह विचार उठे तो नहीं, पर बलपूर्वक उठाने पड़े। पूरा रास्ता डरावना था। एकाकीपन— अँधेरे और मृत्यु के दूत मिल-जुलकर डराने का प्रयत्न करते रहे और वापस लौट चल...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 34)— गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा
गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा:— यात्रा में जहाँ भी रात्रि बितानी पड़ी, वहाँ काले साँप रेंगते और मोटे अजगर फुफकारते बराबर मिलते रहे। छोटी जाति का सिंह उस क्षेत्र में अधिक होता है। उसमें फुरती बब्बर शेर की तुलना में अधिक होती है। आकार के हिसाब से ताकत उसमें कम होती है। इसलिए छोटे जानवरों पर हाथ डालता है। शाकाहारियों में आक्रमणकारी पहाड़ी रीछ होता है। शिवालिक की पहाड़ियों एवं हिमालय के निचले इलाके में इर्द-गिर्द जंगली हाथी भी रहते हैं। इन सभी की प्रकृति यह होती है कि आँखों से आँखें न मिलें; उन्हें छेड़े जाने का भय न हो, तो अपने रास्ते ही चले जाते हैं; अन्यथा, तनिक भी भय या क्रोध का भाव मन में आने पर वे आक्रमण कर बैठते हैं। अजगर, सर्प, बड़ी छिपकली (गोह), रीछ, तेंदुए, चीते, हाथी; इनसे आएदिन...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 33)— गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा
गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा:— हमारी यात्रा चलती रही। साथ-साथ चिंतन भी चलता रहा। एकाकी रहने में मन पर दबाव पड़ता है; क्योंकि वह सदा से समूह में रहने का अभ्यासी है। एकाकीपन से उसे डर लगता है। अँधेरा भी डर का एक बड़ा कारण है। मनुष्य दिन भर प्रकाश में रहता है। रात्रि को बत्तियों का प्रकाश जला लेता है। जब नींद आती है, तब बिलकुल अँधेरा होता है। उसमें भी डर उतना कारण नहीं, जितना कि सुनसान अँधेरे में होता है। एकाकीपन में विशेषतया मनुष्य के मस्तिष्क को डर लगता है। योगी को इस डर से निवृत्ति पानी चाहिए। ‘अभय’ को अध्यात्म का अतिमहत्त्वपूर्ण गुण माना गया है। वह छूटे, तो फिर उसे गृहस्थ की तरह सरंजाम जुटाकर— सुरक्षा का प्रबंध करते हुए रहना पड़ता है। मन की कच्चाई बनी रहती है। दूसरा संकट हिमालय-क्ष...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 33)— गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा
गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा:—   हमारी यात्रा चलती रही। साथ-साथ चिंतन भी चलता रहा। एकाकी रहने में मन पर दबाव पड़ता है; क्योंकि वह सदा से समूह में रहने का अभ्यासी है। एकाकीपन से उसे डर लगता है। अँधेरा भी डर का एक बड़ा कारण है। मनुष्य दिन भर प्रकाश में रहता है। रात्रि को बत्तियों का प्रकाश जला लेता है। जब नींद आती है, तब बिलकुल अँधेरा होता है। उसमें भी डर उतना कारण नहीं, जितना कि सुनसान अँधेरे में होता है। एकाकीपन में विशेषतया मनुष्य के मस्तिष्क को डर लगता है। योगी को इस डर से निवृत्ति पानी चाहिए। ‘अभय’ को अध्यात्म का अतिमहत्त्वपूर्ण गुण माना गया है। वह छूटे, तो फिर उसे गृहस्थ की तरह सरंजाम जुटाकर— सुरक्षा का प्रबंध करते हुए रहना पड़ता है। मन की कच्चाई बनी रहती है। दूसरा संकट हिमालय-क...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 32)— गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा
गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा:— उनसे तो हमें चट्टियों पर दुकान लगाए हुए पहाड़ी दुकानदार अच्छे लगे। वे भोले और भले थे। आटा, दाल, चावल आदि खरीदने पर वे पकाने के बरतन बिना किराया लिए— बिना गिने ऐसे ही उठा देते थे; माँगने-जाँचने का कोई धंधा उनका नहीं था। अक्सर चाय बेचते थे। बीड़ी, माचिस, चना, गुड़, सत्तू, आलू जैसी चीजें यात्रियों को उनसे मिल जाती थीं। यात्री श्रद्धालु तो होते थे, पर गरीब स्तर के थे। उनके काम की चीजें ही दुकानों पर बिकती थीं। कंबल उसी क्षेत्र के बने हुए किराए पर रात काटने के लिए मिल जाते थे। शीत ऋतु और पैदल चलना, यह दोनों ही परीक्षाएँ कठिन थीं। फिर उस क्षेत्र में रहने वाले साधु-संन्यासी उन दिनों गरम इलाकों में गुजारे की व्यवस्था करने नीचे उतर आते हैं। जहाँ ठंड अधिक है, वह...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 31)— गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा
गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा:— इस यात्रा से गुरुदेव एक ही परीक्षा लेना चाहते थे कि विपरीत परिस्थितियों में जूझने लायक मनःस्थिति पकी या नहीं। सो यात्रा अपेक्षाकृत कठिन ही होती गई। दूसरा कोई होता, तो घबरा गया होता; वापस लौट पड़ता या हैरानी में बीमार पड़ गया होता, पर गुरुदेव यह जीवनसूत्र व्यवहार में सिखाना चाहते थे कि मनःस्थिति मजबूत हो, तो परिस्थितियों का सामना किया जा सकता है; उन्हें अनुकूल बनाया या सहा जा सकता है। महत्त्वपूर्ण सफलताओं के लिए आदमी को इतना ही मजबूत होना पड़ता है। ऐसा बताया जाता है कि जब धरती का स्वर्ग या हृदय कहा जाने वाला भाग देवताओं का निवास था, तब ऋषि गोमुख से नीचे और ऋषिकेश से ऊपर रहते थे, पर हिमयुग के बाद परिस्थितियाँ एकदम बदल गईं। देवताओं ने कारणशरीर धारण कर लि...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 30)— गुरुदेव का प्रथम बुलावा— पग-पग पर परीक्षा
गुरुदेव का प्रथम बुलावा— पग-पग पर परीक्षा:— पूरा एक वर्ष होने भी न पाया था कि बेतार का तार हमारे अंतराल में हिमालय का निमंत्रण ले आया। चल पड़ने का बुलावा आ गया। उत्सुकता तो रहती थी, पर जल्दी नहीं थी। जो नहीं देखा है, उसे देखने की उत्कंठा एवं जो अनुभव हस्तगत नहीं हुआ है, उसे उपलब्ध करने की आकांक्षा ही थी। साथ ही ऐसे मौसम में, जिसमें दूसरे लोग उधर जाते नहीं, ठंड, आहार, सुनसान, हिंस्र जंतुओं का सामना पड़ने जैसे कई भय भी मन में उपज उठते, पर अंततः विजय प्रगति की हुई। साहस जीता। संचित कुसंस्कारों में से एक अनजाना डर भी था। यह भी था कि सुरक्षित रहा जाए और सुविधापूर्वक जिया जाए, जबकि घर की परिस्थितियाँ ऐसी ही थीं। दोनों के बीच कौरव-पांडवों की लड़ाई जैसा महाभारत चला, पर यह सब 24 घंटे से अधिक न टिका। ठीक...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 29)— गुरुदेव का प्रथम बुलावा— पग-पग पर परीक्षा
गुरुदेव का प्रथम बुलावा— पग-पग पर परीक्षा:— गुरुदेव द्वारा हिमालय बुलावे की बात मत्स्यावतार जैसी बढ़ती चली गई। पुराण की कथा है कि ब्रह्मा जी के कमंडलु में कहीं से एक मछली का बच्चा आ गया। हथेली में आचमन के लिए कमंडलु लिया, तो वह देखते-देखते हथेली भर लंबी हो गई। ब्रह्मा जी ने उसे घड़े में डाल दिया। क्षण भर में वह उससे भी दूनी हो गई, तो ब्रह्माजी ने उसे पास के तालाब में डाल दिया। उसमें भी वह समाई नहीं, तब उसे समुद्र तक पहुँचाया गया। देखते-देखते उसने पूरे समुद्र को आच्छादित कर लिया, तब ब्रह्मा जी को बोध हुआ। उस छोटी-सी मछली में अवतार होने की बात जानी; स्तुति की और आदेश माँगा। बात पूरी होने पर मत्स्यावतार अंतर्ध्यान हो गए और जिस कार्य के लिए वे प्रकट हुए थे, वह कार्य सुचारु रूप से संपन्न हो गया। हम...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 28)— दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह
दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—   कांग्रेस अपनी गायत्री-गंगोत्री की तरह जीवनधारा रही। जब स्वराज्य मिल गया, तो हमने उन्हीं कामों की ओर ध्यान दिया, जिससे स्वराज्य की समग्रता संपन्न हो सके। राजनेताओं को देश की राजनैतिक-आर्थिक स्थिति सँभालनी चाहिए। पर नैतिक क्रांति, बौद्धिक क्रांति और सामाजिक क्रांति उससे भी अधिक आवश्यक है, जिसे हमारे जैसे लोग ही संपन्न कर सकते हैं। यह धर्मतंत्र का उत्तरदायित्व है। अपने इस नए कार्यक्रम के लिए अपने सभी गुरुजनों से आदेश लिया और कांग्रेस का एक ही कार्यक्रम अपने जिम्मे रखा— ‘खादी धारण।’ इसके अतिरिक्त उसके सक्रिय कार्यक्रमों से उसी दिन पीछे हट गए, जिस दिन स्वराज्य मिला। इसके पीछे बापू का आशीर्वाद था; दैवी सत्ता का हमें मिला निर्देश था। प्रायः 20 वर्ष लगाता...
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हमारी वसीयत और विरासत (भाग 27)— दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह
दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:— कांग्रेस की स्थापना की एक शताब्दी होने को चली। पर वह कांग्रेस, जिसमें हमने काम किया, वह अलग थी। उसमें काम करने के हमारे अपने विलक्षण अनुभव रहे हैं। अनेक मूर्द्धन्य प्रतिभाओं से संपर्क साधने के अवसर अनायास ही आते रहे हैं। सदा विनम्र और अनुशासनरत स्वयंसेवक की अपनी हैसियत रखी। इसलिए मूर्द्धन्य नेताओं की सेवा में किसी विनम्र स्वयंसेवक की जरूरत पड़ती, तो हमें ही पेल दिया जाता रहा। आयु भी इसी योग्य थी। इसी संपर्क में हमने बड़ी-से-बड़ी विशेषताएँ सीखीं। अवसर मिला तो उनके साथ भी रहने का सुयोग मिला। साबरमती आश्रम में गांधी जी के साथ और पवनार आश्रम में विनोबा के साथ रहने का लाभ मिला है। दूसरे उनके समीप जाते हुए दर्शन मात्र करते हैं या रहकर लौट आते हैं, जबकि हमने ...
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